शुक्रवार, 31 मई 2013

सिर्फ इतना भी काफी औरत होना था (चेतनक्रान्ति की एक कविता)

(चेतनक्रांति की कुछ कविताएँ मैंने उनकी पुस्तक 'शोकनाच' में पढ़ी थीं. पढीं क्या, बस एक सरसरी सी नज़र डाली थी. अपने दोस्त के साथ एक बार उनसे मिली भी, तो वे मुझे बेहद सहज, सरल और संकोची से व्यक्ति लगे. आज जब दोस्त ने उनकी ये कविता पढ़ने को दी, तो मैं इसे यहाँ शेयर करने से खुद को नहीं रोक पायी.
औरत  को पुरुषों की दृष्टि से देखना मुझे हमेशा से आकर्षित करता रहा है, इसलिए उनके द्वारा लिखी गयी कविताएँ अक्सर पढ़ती हूँ और समझने की कोशिश करती हूँ. ये कविता दो बार पढ़ चुकी हूँ, अभी शायद एक-दो बार और पढूं और समझने की कोशिश करूँ कि एक पुरुष औरतों के बारे  में क्या सोचता है? क्या उनके जैसा होना चाहता है? क्या 'मर्दानगी' की छवियों (स्टीरियोटाइप इमेज) में कभी उसका दम घुटता है?)

कुछ काम मैंने औरतों की तरह किए
कुछ नहीं, कई
और फिर धीरे-धीरे सारे
सबसे आखिर में जब मैं लिखने बैठा
मैंने कमर सीधी खड़ी करके
पंजों और ऐडि़यों को सीध में रखकर बैठना सीखा
इससे कूल्हों को जगह मिली
और पेट को आराम
उसने बाहर की तरफ जोर लगाना बन्द कर दिया
अब मैं अपने शफ़्फाफ नाखूनों को
आइने की तरह देख सकता था
और उँगलियों को
जो अब वनस्पति जगत का हिस्सा लग रही थीं
नहीं, मुझे फिर से शुरू करने दें
मैंने पहले औरतों को देखा
उनकी खुशबू को उनकी आभा को
जो उनके उठकर चले जाने के बाद कुछ देर
वहीं रह जाती थी
उनके कपड़ों को
जिनमें वे बिलकुल अलग दिखती थीं
मैंने बहुत सारी सुन्दर लड़कियों को देखा, और उनसे नहीं
उनके आसपास होते रहने को प्यार किया,
और फिर धीरे-धीरे नाखून पालिश को
लिपस्टिक को
पायल को
कंगन को
गलहार को
कमरबन्द को
और ऊँची ऐड़ी वाले सैंडिल को
उन तमाम चीजों को जो सिर्फ औरतों की थीं
और जो उन्हें मर्दों के अलावा बनाती थीं
मर्द जो मुझे नहीं पता किसलिए
बदसूरती को ताकत का बाना कहता था
और ताकत को देह का धर्म
मैंने बहुत सारे मर्दों को देखा
जब मेरे पास देखने के लिए सिर्फ वही रह गए थे
वे मोटरसाइकिल चला रहे थे
जो तीर की तरह तुम्हारे भीतर से निकलती थी
वे कविता भी लिख रहे थे
और उसे भी कुछ दिन बाद मोटरसाइकिल की तरह चलाने लगते थे
वे हर जगह कुछ न कुछ चलाते थे
जैसे सम्भोग में शिश्न को और दुनिया में हुकूमत को।
मैंने उन्हें खूब देखा
जब वे बलात्कार कर रहे थे
गर्भ चीर रहे थे
ओठों और योनियों को भालों से दो फाड़ कर रहे थे
मैंने उन्हें औरत होकर देखा
डरकर सहमते चुप रहते हुए
और उनके मामूलीपन को जानकर भी
कुछ न कहते हुए।
नहीं, मैं फिर भटक गया
मुझे मर्दों की बात ही नहीं करनी थी
मुझे थोड़े कम मर्दों की बात करनी थी
जैसा मैं था
और वे तमाम और जो मेरे जैसे थे
मुझे उनकी बात करनी थी
जो अपने मर्द होने से उकता उठे थे
मर्दानगी के ठसके पर जिन्हें मन्द-मन्द औरताना हँसी आने लगी थी
जो औरतों की सुन्दरता के शिकार हो गए थे
प्रेमी नहीं
उन्होंने उस सुन्दरता को ओढ़ लेना चाहा
अपने काँटों-कैक्टसों के ऊपर,
उन्होंने अपने कोनों को घिसा, गोल किया
और उन पर रंग लगाए अलग-अलग कई कई
और ध्वनियाँ कर्णप्रिय रूणुन-झुणुन और कणन-मणन।
मैंने एक स्कर्ट खरीदी जो कानों में कुछ कहती थी
एक साड़ी जिसका न आर था, न पार
एक जोड़ा रेशम के गुच्छे
जिनमें वे अपना गोपनीय रखती थीं
मैं यहीं रुक जाता अगर मुझे आगे रास्ता न दिखता
पर वहाँ एक राह थी जो आगे जाती थी
वहाँ जहाँ स्त्री थी
किसी दिन यूँ ही भूख की पस्ती में
वह मुझे अपने भीतर से आती लगी
फिर इसी तरह जब मैं बेमकसद घूमने निकल गया
और शहर की आपाधापी में जा फँसा
मुझे वापस अपने पीछे कहीं दूर अँधेरे के बाद एक उजास सी लगी
हालाँकि भीड़ इतनी थी कि मैं गर्दन घुमा नहीं सकता था।
वह मुझे दिखी
जिस सुबह मैं देर तक सिगरेट पीना भूला रहा
और रक्त बिना मुझे बताए
मेरी शिराओं को जगाने मेरे स्नायुओं को जिलाने लगा
मैंने अचानक टाँगें महसूस की
जो अन्यथा धुँए की गर्द में गुम रहती थीं
और मैं जानता नहीं था कि वे मेरे लिए क्या करती है।
लेकिन फिर एक दिन
घबराकर मैंने सिगरेट पी
और दफतर चला गया
यह अंत था
या शायद नहीं
फिर भी एक बार के लिए इतना औरत होना काफी था।