गुरुवार, 20 मई 2010

मेरा होना या न होना

मैं तभी भली थी
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को,
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.

जी रही थी मैं
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ,
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर,
बस चल रही थी ...

राह में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने 'होने' का एहसास हुआ,

अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे 'होने' की राह में रुकावट है...

हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो 'है'
पर, 'नहीं हो पा रही है खुद सी'
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों की,
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया .

शनिवार, 1 मई 2010

सोचकर तो देखें

कभी सोचते हैं हम
फाइव-स्टार होटलों में
छप्पन-भोग खाने से पहले
कि कितने ही लोग
एक जून रोटी के बगैर
तड़प-तड़प के मरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
आलीशान मालों में
कीमती कपड़े खरीदने से पहले
कि कितने बच्चे और बूढे
फटे -चीथड़े लपेटे
गर्मी में झुलसते
सर्दी में ठिठुरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों को
सैकड़ों लीटर पानी से
नहलाने से पहले
कि इसी देश के किसी कोने में
लोग बूँद-बूँद पानी को तरसते हैं ।

सोचते हैं हम कि
अकेले हमारे सोचने से
क्या फर्क पड़ेगा
कभी सोचकर तो देखें
एक बार तो मन ठिठकेगा...

(यह कविता पिछले वर्ष मजदूर दिवस पर लिखी थी...आज भी कुछ नहीं बदला है...और आगे भी शायद नहीं बदलेगा...पर, क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ??)